पुलिस सुधार-2 : समाज के साथ संवेदनशील हो पुलिस का व्यवहार

भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। इस लेख के पहले भाग में हमने पुलिस सुधार के उन बिंदुओं पर चर्चा की थी जिनको अपनाकर पुलिसकर्मियों की समस्याएं दूर की जा सकती हैं। उनका और उनके बच्चों का भविष्य बेहतर बनाया जा सकता है। उन्हें वे बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं जिनसे उनमें काम करने का उत्साह आए और वे मानवीय गरिमा के साथ अपनी ड्यूटी का निर्वहन कर सकें। लेख के इस भाग में हम चर्चा करेंगे कि पुलिस के व्यवहार में और कार्यप्रणाली में वे कौन से बदलाव आने चाहिए जिससे लोग जनता को वाकई अपना मित्र और हितैषी समझें। अपराधी और असामाजिक तत्व पुलिस से डरें। जबकि आम आदमी पुलिस की उपस्थिति में खुद को निर्भय महसूस करे।

सबसे पहली बात तो यह है कि पुलिस की ट्रेनिंग आज भी कुछ ना कुछ ब्रिटिश जमाने की चली आ रही है। ब्रिटिश शासन में पुलिस की जिम्मेदारी अपराधियों पर नकेल कसने के साथ ही जनता को भयभीत रखने की भी होती थी। उस समय जनता को डरा कर रखना इसलिए जरूरी था क्योंकि उसके मन में किसी भी तरह विदेशी शासन से विद्रोह करने की मानसिकता ना आ सके। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि उस जमाने में खाकी का इतना भय हुआ करता था कि अगर किसी गांव में डाकिया भी पहुंच जाए तो लोग सहम जाते थे। लेकिन आजाद भारत में तो पुलिस का काम समाज को भयमुक्त करना है। आम नागरिक की सबसे बड़ी समस्या यह रहती है कि जब वह थाने में किसी बात की शिकायत करने जाता है या एफआईआर करना चाहता है तो इस प्रक्रिया में उसे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कई गंभीर मामलों में तो पुलिस समाज के रसूखदार लोगों या राजनीतिक दबाव में भी एफआईआर नहीं करती है। कितने ही ऐसे मौके आते हैं, जब बड़ी पहुंच वाले लोगों से एफआईआर कराने के लिए फोन करने पड़ते हैं।


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Manisha Kumari Pandey

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